Monday, 2 December 2013

जब-जब बेबस होता हूँ

मैं अपनी क़िस्मत के आगे जब-जब बेबस होता हूँ ।
तुम क्या जानो तन्हाई में कितने आँसू रोता हूँ ॥

जिन नग़मों पे सुनने वाले अक्सर झूमा करते हैं ।
मैं रातों में उनके ही ताने-बाने में सोता हूँ ॥

जाने क्यूँ उगते हैं कांटे मेरे नन्हें पौधों पर ।
फूलों के बीजों को मैं इतनी शिद्दत से बोता हूँ ॥

घाइल हो जाता है सीना अपनों की बाते सुनकर ।
ख़ूँ आलूदा ज़ख्म-ए -दिल को अश्क-ए -ग़म से धोता हूँ ॥

सच्चाई से जो मिलता है बच्चों को नाकाफ़ी है ।
काम आयेगी कब ख़ुद्दारी रोज़ाना जो धोता हों ॥

अपनी नाकामी पर जब भी बढ़ जाती है बेचैनी ।
खिसियाहट में पागल होकर अपना आपा खोता हूँ ॥

'सैनी' किससे कब रूठा हूँ  कोई तो ये बतलाये ।
सबको अपना-अपना बोलूं चाबी वाला तोता हूँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी    

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