Tuesday, 15 October 2013

दी शरर को अचानक हवा

दी शरर को अचानक हवा ।
और ख़ुद हो गया लापता ॥

कौन सा एसा रस्ता बचा ।
जिस पे घर एक भी न जला ॥

एहमियत वो समझते नहीं ।
कैसा रिश्ता है कैसी वफ़ा ॥

ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ हर सिम्त है ।
काश हो कोई मुश्किल कुशा ॥

ओढ़ कर सब लिबास-ए -धरम ।
बांटने चल पड़े हैं ख़ुदा ॥

लौट कर आयेगा फिर यहीं ।
आप चुन लें कोई रास्ता ॥

अम्न की बात 'सैनी' करे ।
कब शुरू हो मगर सिलसिला ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी            

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