Thursday, 31 October 2013

बात कर

छोड़ दे मन की उदासी मुस्कुरा कर बात कर ।
तू चमन की हर कली सा खिलखिला कर बात कर ॥

ज़ुर्म हो जाएगा साबित गर नज़र नीची रही ।
ज़ुर्म जब तेरा नहीं तो सर उठा कर बात कर ॥

बात कर एसी समझ में हर किसी के आ सके ।
गोल चक्कर की तरह तू मत घुमा कर बात कर ॥

अब तलक खाता रहा तू जो दिया माँ -बाप ने ।
अब तो कुछ थोड़ा बहुत तू भी कमा कर बात कर ॥

कर नहीं सकता किसी की चार पैसे से मदद ।
तू मगर उससे ज़रा सा दिल मिला कर बात कर ॥

हक़ हमेशा मांग हक़ से है ये नाजायज़ कहाँ ।
है नहीं अच्छा तू सब से गिड़गिड़ा कर बात कर ॥

ग़लतियाँ होती रहेंगी रोज़ का दस्तूर है ।
तू मगर 'सैनी' यूँ मत तिलमिला कर बात कर ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 29 October 2013

गोल कर जाए

सैंकड़ो बात बोल कर जाए ।
प्यार की बात गोल कर जाए ॥

रोज़ की राज़ ख़ाब में आकर ।
मुझसे आकर मखौल कर जाए ॥

उसको पहचानना बड़ा मुश्किल ।
क्या ग़ज़ब का वो रोल कर जाए ॥

जब भी आये हवा-हवाई वो ।
मुझको सारा टटोल कर जाए ॥

मेरे चेहरे को पैनी नज़रों से ।
इक हसीं नाप-तौल कर जाए ॥

मेरे मन की तमाम गांठों को ।
कोई तो आज खोल कर जाए ॥

जो भी इतिहास लिख रहा 'सैनी'.
वो उसे ही भूगोल कर जाए ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Monday, 28 October 2013

न जाने क्यूँ अब

कोडियों में बिके हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ।
अपने क़द से गिरे हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

सब ही चेहरों पे मुखौटे लगा के फिरते हैं ।
यूँ समझ से परे हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

देख कर मेरी निज़ामत का असर महफ़िल में ।
मुझसे जलने लगे हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

इक ज़माना था सभी का था मुनव्वर चेहरा ।
सब ही दाग़ी बने हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

सीधी सी बात नहीं दिल में उतर पाती है ।
अपनी ज़िद पे अड़े हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

कौन आया है पडौसी को न कोई मतलब ।
यार इतने बुरे हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

आज 'सैनी'को नज़र आ रहा ख़तरा उनसे ।
जो हसद से भरे हैं लोग न जाने क्यूँ  अब ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी   

Wednesday, 23 October 2013

अगर ग़ज़लें नहीं कहता

क़ज़ा से डर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता । 
कभी का मर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

हज़ारों रास्ते थे सामने जब ज़र कमाने के । 
कमाई कर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

ज़माने के फ़रेब -ओ-मक्र पर जब ग़ौर करता हूँ । 
ज़माने पर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

असर जब हुस्न की रानाइयाँ दिल पर लगी करने । 
मेरा जी भर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

मुहब्बत करने वाले मुझको दुन्या में अब इतने हैं । 
न यूँ ऊपर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

जहालत को ज़हादत पर नहीं होने दिया क़ाबिज़ । 
मैं बन क़ाफ़र गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

सुखन में बात आपस की हमेशा कह गया 'सैनी '। 
तो क्या कह कर गया होता अगर ग़ज़लें नहीं कहता ॥ 

डा०सुरेन्द्र सैनी  
 

Friday, 18 October 2013

बाज़ी मार जाता हूँ

अगरचे आम लोगों से तो बाज़ी मार जाता  हूँ ।
मगर मैं अपने प्यारों से हमेशा हार  जाता  हूँ ॥

करूँ मैं दूसरों को हर्ट ये मक़्सिद नहीं मेरा ।
नहीं शर्म-ओ -हया के दायरे के पार जाता  हूँ ॥

मुझे मालूम है इन्कार ही मुझको करेगा वो ।
मैं ठहरा बावला उस दर पे बारम्बार  जाता  हूँ ॥

ज़रा सी बात को लेकर मुझे अपनों ने ठुकराया ।
तभी तो ढूँढने ग़ैरों में अक्सर प्यार  जाता  हूँ ॥

नशा तारी है मुझ पर इस तरह कुछ इश्क़  का तेरे ।
तेरी ख़ुशबू के पीछे छोड़ कर घर -बार  जाता  हूँ ॥

किसी सहरा में मैं प्यासे हिरन सा ढूँढने पानी ।
कभी इस पार आता हूँ कभी उस पार  जाता  हूँ ॥

अगरचे रोज़ 'सैनी' मुझको समझाता बहुत दिल से ।
सराबों में मगर फिर भी मैं पड के  हार  जाता  हूँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Thursday, 17 October 2013

कंगन

किसको इलज़ाम दूँ मैं ख़ुद की तबाही के लिए ।
सब के आये हैं पयाम अपनी सफ़ाई के लिए ॥

मुझको फ़रमान सुनाया है इबादत न करो ।
मैंने माँगी जो दुआ सबकी भलाई के लिए ॥

आज भी मुझको चिढायें वो गुलाबी कंगन ।
जो ख़रीदे थे कभी उसकी कलाई के लिए ॥

जान देता है हमेशा ही वो राजा के लिए ।
कोई राजा न सुना मरता सिपाही के लिए ॥

दो घड़ी बैठ तू भी नाम खुदा का लेले ।
ज़िंदगी सारी पडी ख़ूब  कमाई के लिए ॥

आज भाई ही बना जान का दुश्मन कैसा ।
जान देता था जो भाई कभी भाई के लिए ॥

जुर्म करके भी वो इनआम  के हक़दार बने ।
और अच्छाई बची मेरी बुराई के लिए ॥

मैं कलम ख़ून -ए -जिगर में ही डुबाकर अक्सर ।
रोज़ लिखता रहा हूँ उनको सियाही के लिए ॥

कौन से बिल में छुपे जाके बताओ 'सैनी' ।
रोज़ आता है महाजन जो उगाही के लिए ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 15 October 2013

दी शरर को अचानक हवा

दी शरर को अचानक हवा ।
और ख़ुद हो गया लापता ॥

कौन सा एसा रस्ता बचा ।
जिस पे घर एक भी न जला ॥

एहमियत वो समझते नहीं ।
कैसा रिश्ता है कैसी वफ़ा ॥

ख़ौफ़ ही ख़ौफ़ हर सिम्त है ।
काश हो कोई मुश्किल कुशा ॥

ओढ़ कर सब लिबास-ए -धरम ।
बांटने चल पड़े हैं ख़ुदा ॥

लौट कर आयेगा फिर यहीं ।
आप चुन लें कोई रास्ता ॥

अम्न की बात 'सैनी' करे ।
कब शुरू हो मगर सिलसिला ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी            

Sunday, 13 October 2013

लाइबा हो तुम

उर्वशी हो या मेनका हो तुम ।
लोग कहते हैं लाइबा हो तुम ॥

आरज़ूओँ का मरहला हो तुम ।
जिंदगानी का फ़ल्सफ़ा हो तुम ॥

मैं तो प्यासा जनम-जनम का हूँ ।
साक़ी हो तुम कि मैकदा हो तुम ॥

सोचता हूँ जिसे तसव्वुर में ।
मेरे ख़ाबों की दिलरुबा हो तुम ॥

मंज़िलों का मक़ाम है तुम तक ।
मंज़िल -ए -इश्क़ बाख़ुदा हो तुम ॥

है तुम्हारा ही अक्स तो सब में ।
हुस्न का एक क़ायदा हो तुम ॥

अब भी उसका वुजूद क़ाइम है ।
आज 'सैनी' का हौसला हो तुम ॥


 लाइबा ---------जन्नत की हूर

डा० सुरेन्द्र सैनी

Thursday, 10 October 2013

प्यार से सस्ता क्या है


सोचता हूँ जहाँ में प्यार से सस्ता क्या है ।
प्यार के बिन किसी के पास में बचता क्या है ॥

बेतकल्लुफ़ जो हो के नाम तेरा ले बैठा ।
सबने पूछा कि  मेरा तुझसे ये रिश्ता क्या है ॥

तेरी मर्ज़ी पे मेरे प्यार की क़िस्मत ठहरी ।
अब भला और मेरे पास में रस्ता क्या है ॥

दिल लिया आपने और आँसू गए फ़ुर्क़त में ।
एक आशिक़ के भला साथ में रहता क्या है ॥

लूट कर ले चलो दुन्या से दिलों की दौलत ।
एसे ज़र के सिवा बस साथ में चलता क्या है ॥

देख के भोली सी सूरत पे न हारो सब कुछ ।
ज़िह्न में कब किसी के क्या पता पलता क्या है ॥

चोट खाए हुए शायर के क़लम से पूछो ।
डूब के लफ़्ज़ों के दरिया में वो लिखता क्या है ॥

इश्क़ में ख़ैर मनाओ मियाँ अपनी जाँ की ।
हुस्न की आग के आगे भला टिकता क्या है ॥

आप मसरूफ़ हैं दुन्या जहाँ की बातों में ।
ग़ौर से सुनियेगा 'सैनी'को ये कहता क्या है ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

Monday, 7 October 2013

समझता नहीं

वो इशारा समझता नहीं ।
प्यार दिल का समझता नहीं ॥

कब से प्यासा हूँ दीदार का ।
दर्द मेरा समझता नहीं ॥

उसको कैसे दिलाऊँ  यक़ीन ।
मुझको अपना समझता नहीं ॥

सब ही कहते हैं उसको बुरा ।
मैं तो एसा समझता नहीं ॥

लालची हो गया है बशर ।
हक़ किसी का समझता नहीं ॥

ताल देता है सुन कर वो बात ।
वज़्न उसका समझता नहीं ॥

बेसुरा राग 'सैनी' का है ।
पर बेचारा समझता नहीं ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Wednesday, 2 October 2013

माँ की नज़्र

अपने हिस्से की भी माँ मुझको खिला देती थी ।
ख़ुद ने खाली है वो वालिद को बता  देती थी ॥

मैं भटकने लगा जब-जब भी कभी रस्ते से ।
खींच कर मुझको माँ रस्ते पे लगा  देती थी ॥

मेरी शैतानियों से होक ख़फ़ा माँ अक्सर ।
पीट कर मेरा बुरा हाल बना  देती थी ॥

ख़्वाहिशें  मैंने अगर सामने माँ के रख दी ।
सबको मंजूर वो वालिद से करा  देती थी ॥

मुझको जब-जब किसी ने टेढ़ी नज़र से देखा ।
उसकी पल भर  में वो औक़ात दिखा  देती थी ॥

मैं परेशानियों में जब भी घिरा होता था ।
माँ  मुझे थपकियाँ देकर के सुला  देती थी ॥

आज भी याद है 'सैनी' को वो सारी बातें ।
माँ मुझे भाइयों बहनों से सवा  देती थी ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 1 October 2013

प्यार देता हूँ

प्यार देता हूँ प्यार लेता हूँ ।
मैं नहीं कुछ उधार लेता हूँ ॥

ग़लतियाँ रोज़ गरचे होती हैं ।
फिर भी उनको सुधार लेता हूँ ॥

कुछ भी हासिल नहीं मगर फिर भी ।
ज़िंदगी मैं गुज़ार लेता हूँ ॥

बिखरे टुकड़े समेट कर अपने ।
पैरहन को सँवार लेता हूँ ॥

वार मेरी अना पे कर दे जो ।
उसकी गर्दन उतार लेता हूँ ॥

ज़ात भँवरे की है नहीं फिर भी ।
प्रेम रस की फुहार लेता हूँ ॥

रंज-ओ-ग़म जब कभी सताते हैं ।
'सैनी'को बस पुकार लेता हूँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी