Wednesday, 25 September 2013

मशविरा

किसी का मशविरा गर मान लेता ।
तेरी नीयत को मैं पहचान लेता ॥

मेरी कश्ती को देता तू सहारा ।
मैं क्यूँ फिर ग़ैर का एहसान लेता ॥

तबाही का जो आलम चार सू है ।
सबक़ इससे नहीं इंसान लेता ॥

मुझे भी हौसला मिलता सफ़र में ।
अगर दिल में ख़ुदा को मान लेता ॥

तू दुश्मन से न कुछ भी मात खाता ।
कभी एयार से जो जान लेता ॥

बताता काश कोई एब मेरे ।
तरफ़ अपनी मैं ख़ंजर तान लेता ॥

मना 'सैनी ' तो कर सकता नहीं था ।
मनाने की अगर तू ठान लेता ॥

डॉ०  सुरेन्द्र सैनी                             

No comments:

Post a Comment