किसी का मशविरा गर मान लेता ।
तेरी नीयत को मैं पहचान लेता ॥
मेरी कश्ती को देता तू सहारा ।
मैं क्यूँ फिर ग़ैर का एहसान लेता ॥
तबाही का जो आलम चार सू है ।
सबक़ इससे नहीं इंसान लेता ॥
मुझे भी हौसला मिलता सफ़र में ।
अगर दिल में ख़ुदा को मान लेता ॥
तू दुश्मन से न कुछ भी मात खाता ।
कभी एयार से जो जान लेता ॥
बताता काश कोई एब मेरे ।
तरफ़ अपनी मैं ख़ंजर तान लेता ॥
मना 'सैनी ' तो कर सकता नहीं था ।
मनाने की अगर तू ठान लेता ॥
डॉ० सुरेन्द्र सैनी
तेरी नीयत को मैं पहचान लेता ॥
मेरी कश्ती को देता तू सहारा ।
मैं क्यूँ फिर ग़ैर का एहसान लेता ॥
तबाही का जो आलम चार सू है ।
सबक़ इससे नहीं इंसान लेता ॥
मुझे भी हौसला मिलता सफ़र में ।
अगर दिल में ख़ुदा को मान लेता ॥
तू दुश्मन से न कुछ भी मात खाता ।
कभी एयार से जो जान लेता ॥
बताता काश कोई एब मेरे ।
तरफ़ अपनी मैं ख़ंजर तान लेता ॥
मना 'सैनी ' तो कर सकता नहीं था ।
मनाने की अगर तू ठान लेता ॥
डॉ० सुरेन्द्र सैनी
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